Uttarakhand Kandaar Devta : उत्तराखंड को यूं ही देवभूमि नहीं कहा जाता। यहां सदियों से चली आ रही मान्यताएं आज भी जिंदा हैं। इसका एक उदाहरण वरुणावत पर्वत के शीर्ष पर बसे संग्राली गांव में देखने को मिलता है। यहां कंडार देवता का आदेश ही सर्वमान्य होता है। कंडार देवता (Significance of Kandar Devta) को ग्रामीण न्यायाधीश के तौर पर पूजते हैं। मान्यता है कि कंडार देवता ग्रामीणों व बाहर से आने वाले श्रद्धालुओं की हर समस्या का समाधान करते हैं। यहां पंडित की पोथी, दवा और कोतवाल का डंडा भी काम नहीं आता है।
उत्तराखंड की राजधानी देहरादून से 140 किलोमीटर की दूरी पर स्थित तिब्बत से लगा जनपद उत्तरकाशी है। जहां बस अड्डे से आधा किलोमीटर दूर कलक्ट्रेट के पास कंडार देवता का नवनिर्मित भव्य मंदिर है। उत्तरकाशी शहर के निकट सड़क मार्ग से 13 किलोमीटर और पैदल पारंपरिक मार्ग से 6 किलोमीटर पर संग्राली ग्राम में कंडार देवता का प्राचीन मुख्य मंदिर है।
किसान को मिली थी अष्टधातु से बनी अद्भुत प्रतिमा
स्थानीय लोगों के अनुसार, 16वीं शताब्दी में टेहरी राजशाही के समय वर्तमान जिला कार्यालय (कलेक्ट्रट) परिसर में पोस्ट ऑफिस की ओर एक खेत पर हल चलाते हुए बाड़ाहाट के किसान को अष्टधातु से बनी अद्भुत प्रतिमा प्राप्त हुई। राज्य संपत्ति मानकर किसान ने प्रतिमा को तत्कालीन टेहरी नरेश सुदर्शन शाह को सौंप दिया। इसके बाद नरेश ने इस प्रतिमा को अपने देवस्थान में रखी अन्य मूर्तियों के नीचे स्थान दिया। प्रातः जब राजा पूजा करने पहुंचे तो उन्होंने इस प्रतिमा को अन्य मूर्तियों के सबसे ऊपर पाया। फिर राजा को स्वप्न में देवता ने चेतावनी स्वरूप कहा कि जहां से मैं आया हूं, वहीं मुझे पहुंचा दिया जाए। खंड भंड करने से ही यह तब खांडल (कंडार) कहलाए । इसके बाद राजा ने इस प्रतिमा को उत्तरकाशी परशुराम मंदिर में अपने सैनिकों के साथ खांडल ब्राह्मण के संरक्षण में पहुंचा दिया। तत्कालीन बुजुर्गों ने प्रतिमा की विलक्षणता और इसके दिव्य प्रभाव को समझते हुए इसे नगर से दूर वरुणावत पर्वत पर स्थापित करने का सुझाव दिया।
कंडार देवता को लोग अपना रक्षक देवता मानते हैं
वरुणावत पर्वत पर कंडार खोला में विमलेश्वर मंदिर परिसर में कंडार देवता अपने दैदीप्यमान स्वरुप में विमलेश्वर महादेव के संग विराजमान हुए। 19 वर्ष यहां रहने के बाद बग्याल गांव के डंगवाल और संग्राली गांव के नैथानी, भट्ट ब्राह्मण जोकि देवता के पारंपरिक पुजारी हैं, ने सुविधानुसार संग्राली ग्राम में देवता की आज्ञा से मंदिर बनवाया। पूर्व से ही स्थानीय बाड़ाहाट पट्टी के समस्त लोग रोपाई से लेकर वास्तु प्रश्न, संतान प्राप्ति, भूत, वर्तमान और भविष्य बताने वाले कंडार देवता को अपना रक्षक देवता मानते हैं। पंडित का शास्त्र, चिकित्सक की दवा, प्रशासन का आदेश काम नहीं आता। यहां केवल कंडार देवता का आदेश ही सर्वमान्य है। यह मंदिर श्रद्धा व आस्था का केंद्र ही नहीं, बल्कि ऐसा न्यायालय भी है जहां न्यायाधीश वकीलों की बहस नहीं सुनता, बल्कि देवता स्वयं ही फैसला कर यथोचित निदान और न्याय करता है। कंडार देवता 6 गांवों के रक्षक देव के रूप में परम्परागत रूप से आज भी पूजे जाते हैं।
देवता के पास लाते ही पीड़ित की समस्याएं हो जाती हैं दूर
स्थानीय निवासियों में शिव का स्वरुप माने जाने वाले कंडार देवता के प्रति इतनी अधिक श्रद्धा है कि पंडितों द्वारा जन्म कुंडली मिलान करने व विवाह के लिए मना किए जाने पर विवाह देवता की आज्ञा पर तय किए जाते हैं। गांव में बीमार होने पर पीड़ित को देवता के पास लाया जाता है। यहां पीड़ित का सिरदर्द, बुखार आदि समस्याएं ऐसे गायब हो जाती हैं, जैसे पहले थी ही नहीं।
पौराणिक बाड़ाहाट के थौलू (माघ मेला) पर वर्षों से परम्परानुसार, मकर संक्रांति की पूर्व संध्या से मेला पर्यन्त तक कंडार देवता संग्राली गांव से उतर कर रात्रि वास स्थानीय पुरी परिवारों के यहां निवास करते थे और वर्तमान में अब मात्र तीन दिन के लिए अपने नवनिर्मित मंदिर के गर्भगृह में रहते हैं। संक्रांति के दिन ब्रह्ममुहूर्त में जड़भरत घाट में स्नान करते हैं और उसी दिन क्षेत्र के सर्वोच्च इष्टदेव के गण (प्रतिनिधि) होने के नाते माघ मेले का विधिवत उद्घाटन करते हैं। मेले के तीसरे दिन कंडार देवता की भव्य शोभा यात्रा निकाली जाती है। इसमें हाथी पर सवार होकर देवता सभी जनों को आशीष व सुफल देते हैं, जोकि सम्पूर्ण नगर को भक्तिमय कर देता हैं।
देवता कभी भी किसी वाहन से यात्रा नहीं करते
विशेष परिस्थितियों में अथवा देवता की अनुपस्थिति में प्रतीकात्मक रूप से शंख, घंटी और ढोल की पूजा होती है। जनता के प्रश्नों के उत्तर भी इनके द्वारा दिए जाते हैं, जोकि आधुनिक युग में आश्चर्यजनक है। यह देवता कभी भी यात्रा किसी वाहन से नहीं करते, अपितु जनता के साथ पैदल ही प्रस्थान करते हैं। बाड़ाहाट के कंडार देवता सहित भटवाड़ी प्रखंड में 6 भाई (कंडार देवता) निवास करते हैं। इसमें दो लिंग रूप और चार प्रतिमा के रूप में हैं। कौतूहल का विषय यह है कि सभी ने दो घाटियों के मध्य उच्च स्थान को निवास स्थान बनाया है, जिससे निगरानी (सुरक्षा) सुगमतापूर्वक हो सके।
यह सभी 6 कंडार अष्ट भैरव के रूप में काशी के कोतवाल भी हैं, जो काशी पति विश्वनाथ जी के गण रूप में सम्पूर्ण क्षेत्र में अवस्थित हैं। ये रक्षक की भांति प्राणियों की रक्षा करते हैं। इसी कारण जब कभी पर्व, त्योहार आदि पर संग्राली के कंडार देवता उत्तरकाशी के विश्वनाथ मंदिर आते हैं तो इनके गण और काशी के अधिष्ठात्र होने के कारण गर्भगृह में कभी प्रवेश नहीं करते हैं। बाहर चौखट से ही अपना अभिवादन व यथा संकेत के बाद वृहद प्रदक्षिणा कर अपने गंतव्य को प्रस्थान करते हैं।